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बरखा दत्त के नाम खुला खत

मैं हमेशा ही आपके मकसद भरयरहित और उद्देश्यपूर्ण रिपोर्टिंग का प्रशंसक  हूँ. गिनती के उन चंद भारतीय पत्राकारों में से एक हैं, जो मेरी उम्मीदों की लौ को बचाये हुए हैं और जिसकी वजह से भारत के चैथे खंभे पर मेरा भरोसा अब भी बना हुआ है. बावजूद इसके कि आज यह अपनी दिशा खो चुका है और निहित स्वार्थों और टीआरपी की कठपुतली बन चुका है. चैबीसों घंटे चलने वाले खबरिया चैनल सभी तरह की खबरों में पत्राकारिता के तमाम मानदंडों और नैतिकताओं को न सिर्फ नजरअंदाज कर रहे हैं, बल्कि जानबूझ कर छोड़ते चल रहे हैं.

लेकिन आपने न सिर्फ मेरी सारी उम्मीदों के साथ धोखा किया है, बल्कि अपने गैरजिम्मेदार बयानों और राय से एक तरह का वहम और डर पैदा किया है. आतंकवादियों ने मुझे किसी जहन्नुम की तरह डराया है, लेकिन आपकी रिपोर्टिंग ने मुझे उससे ज्यादा आतंकित किया है. क्योंकि आप ठीक वही काम कर रही थीं जो आतंक पैदा करने वाले लोग आपसे कराना चाह रहे थे.

1990 और 2003 के दो खाड़ी युद्धों की रिपोर्टिंग करने वाले एक पत्राकार के तौर पर मैं इस तरह की घटनाओं की संवेदनशीलता और सीमाओं को लेकर पूरी तरह सचेत हूँ और आपने भी जब तथ्यों पर आधारित रिर्पोर्टिंग की, तो उससे मुझे कोई परेशानी नहीं हुई. लेकिन जब आपने इस देश के राजनीतिक ढांचे पर ही सबसे ज्यादा चोट की, उससे मुझे बेहद तकलीफ पहुँची और मैं बेतरह परेशान हुआ. इस रास्ते आपने आम अवाम की राय को एक बहुत ज्यादा खतरनाक शक्ल देने की कोशिश की. मुंबई हमले के दौरान आपने ही सबसे पहले देश के सियासतदानों पर हमला शुरू किया. मैं नहीं मानता कि हालात को समझने और उस पर अपनी साफ राय बनाने के लिए आपको किसी तरह की सीख या अनुभवों की जरूरत है. यह तो एक बुनियादी समझ है कि 26 नवम्बर जैसे वाकये की खबर देना किसी रिपोर्टर का पहला काम है, लेकिन बिल्कुल ठीक-ठीक और समझदारी का इस्तेमाल करते हुए, न कि भाषण झाड़ने या गीत गाने में मगन हो जाएं और लोगों की जज्बातों को भड़काने लगें. लेकिन आप जो कर रही थीं. वह इसके बिल्कुल उलट था.

रिपोर्टिंग करते वक्त आप बेहद नाटकीय लग रही थीं. राजनीतिज्ञों के खिलाफ लोगों की भावनाओं को भड़का रही थीं, जनतंत्रा को चुनौती दे रही थीं और अनजाने में या जानबूझ कर अराजकता को बढ़ावा दे रही थीं. एक खास समुदाय को निशाने पर रखकर उछाला गया आपका यह जुमला ”बहुत हो गया“ (एनफ इज एनफ) निहायत घिनौना था. यह साफ तौर पर अराजकतावाद को न्योता देने की तरह था. जब आप नरीमन हाउस से रिपोर्टिंग कर रही थी. आपने राजनीतिज्ञों और सैन्य बलों के बीच लड़ाई पैदा करने की खुली कोशिश की. इस तरह की तस्वीर पेश करते वक्त आप इस सच्चाई को समझा सकने में नाकाम रहीं कि आप आम अवाम को जनतंत्रा के बजाय फौजी तानाशाही चुनने का दबाव डाल रही थीं. यह शायद एक बेतुकी बात हो, लेकिन अगर कभी ठंडे और खुले दिमाग से आप अपनी उन रिपोर्टिंग को देखेंगी, आप भी इसी नतीजे पर पहुँचेंगी.
मैं इस बात से पूरी तरह इत्तिफाक रखता हूँ कि हिन्दुस्तान के राजनैतिक ढांचे में बड़े पैमाने पर बदलाव की जरूरत है और देश भ्रष्ट. फूहड़, संवेदनहीन और अशिक्षित राजनीतिज्ञों से तबाह है. लेकिन फिर हम सब भी तो इसी दौर में हैं. हम इस सच्चाई को स्वीकार करते हैं कि भारी बदलावों और सुधारों की जरूरत है. लेकिन मुंबई पर हमले के समय राजनीतिज्ञों के खिलाफ इस तरह की नफरत भरी मुहिम चलाने का वक्त नहीं था.

आपने एनडीटीवी की रिपोर्टिंग के लिए नारायण मूर्ति और सलमान रश्दी की ओर से मिली बधाइयों का जिक्र किया था. मैं दावे के साथ कहता हूँ कि आप इस तरह के बयानों को गंभीरता से नहीं लेती हैं और न ही वे आपके चैनल की रिपोर्टिंग की गुणवत्ता को समझेंगे. आप खुद देख सकती हैं कि इन लोगों का नजरिया बेहद सिमटा और निम्न दर्जे का है और वे चीजों को संपूर्णता में नहीं देख सकते.

पाँच अलग-अलग मौकों पर आपने 26.11 की तुलना न्यूयॉर्क पर 9.11 के हमले से की थी. आपने यहां तक कहा कि कुछ मामूली गलत फैसलों के अलावा अमेरिका ने आतंकवादी हमलों पर काबू पाने में कामयाबी हासिल कर ली. बरखा, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आपके जैसा एक समझदार और अनुभवी पत्राकार यह अच्छी तरह जानता होगा कि अमेरिका ने यह कामयाबी इराक, अफगनिस्तान और पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले हजारों लोगों की जान लेकर हासिल की है. उसने हजारों मासूम लोगों को गुआंतानामो बे की जेलों में बंद कर रखा है. क्या आप ये कह रही हैं कि हम भी अमेरिका की तरह एक दुष्ट फासिस्ट देश बन जाएं? सच तो ये है कि आप भारत को जंग की ओर धकेल रही थीं. क्या इसका अहसास है आपको?

क्या आप यह मानती हैं कि आपने 26.11 की रिपोर्टिंग करनेवाली बाकी मीडिया का सुर भी तय कर दिया था? आपके अंदाज और लच्छेदार भाषा के बाद अचानक टाईम्स नाउ, आइबीएन, सीएनएन, हेडलाइन्स टुडे, आजतक और स्टार न्यूज जैसे बड़े चैनलों ने अपना सुर बदल लिया और राजनीतिज्ञों को कोसने लगे.

जब सिमी गिरेवाल ने मुंबई के स्लम में हरेक डर पर पाकिस्तानी झंडे को लेकर एक बेहद गैरजिम्मेदाराना, और तकलीफदेह बयान दिया था., उसी वक्त पृष्ठभूमि में जलते हुए ताज पर आपका “वी द पिपल” का जुमला दूसरा खतरनाक कारनामा था. उसी वक्त कोई सफाई देने के बजाय आपने यह सब होने दिया और दूसरे या तीसरे दिन आपके चैनल ने महज एक लाइन में स्पष्टीकरण दे दिया. क्या आप इस बात से इत्तफाक रखती हैं कि इस तरह के अतिसंवेदनशील हालात में यह बेहद गैरजिम्मेदाराना चूक है?

इन सबके बावजूद यह अभी भी सच है कि आप एक अच्छी पत्राकार हैं और मैं आपके पहले के बहुत सारे काम की इज्जत करता हूँ. लेकिन 26.11 के वाकये के दौरान आपका काम मुझे बहुत ज्यादा खुश नहीं करता. मुझे भरोसा है कि आप इसके भीतर झाँकेंगी, अपने फुटेज देखकर आत्मविश्लेषण करंेगी और एक बार फिर बेबाक और बामकसद पत्राकार के तौर पर सामने आएंगी. सिर्फ एक पत्राकार. मेहरबानी करके एक उद्धारक या मसीहा का लबादा मत ओढ़ें.

आपका
सईद हैदर

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